रविवार, 29 अगस्त 2010

सिणुंक


ठौक लगूंण है पैली
समझि लियो इतुक
मिं सितिल-पितिल 
खालि उस-यस
दाड़ खचोरणीं,
कान खजूणीं,
कौ भड्यूणीं क्यड़ जस
नैं....कत्तई नैं।

मिं सिढ़ि बंणि
तुमा्र पुरखन कें
सरग पुजै सकूं,
सूंड में फैटि बेर
हा्थि कें लै फरकै सकूं,

जो कान
सांचि न सुंणन-
फोड़ि सकूं,
जो आं्ख
बरोबर न द्यखन्-
खोचि सकूं,
जो दाड़
भलि बात त बुलान-
ल्वयै सकूं।

फिरि तुमि कि छा ?

म्या्र/सिंणुका्क 
टोड़ि बेर न करि सकना द्वि !
हौर मिं
गढ़व जै बंणि जूंलौ...
फिरि कि ?

लड़ला मिं हुं ?
आ्ओ, करि ल्हिओ ओ द्वि-द्वि हात
पर कै द्यूं इतुक
मिं सितिल-पितिल
नैं.....
मिं छुं सिणुंक।




हिन्दी भावानुवाद

छूने से पहले
समझ लो इतना
मैं सरल-नाजुक
खाली ऐसा-वैसा
दांत से फंसा निकालने
कान को खुजलाने
अथवा कौऐ (बेकार की चीजों) को जलाने वाली पतली लकड़ियों जैसा
नहीं हूं, बिल्कुल नहीं हूं।

मैं सीढ़ी बन कर 
(एक पौराणिक मान्यता के अनुसार) तुम्हारे पूर्वजों को स्वर्ग पहुंचा सकता हूं 
सूण्ड में घुस कर
हाथी को भी मार सकता हूं

जो कान
सच नहीं सुनते-
उन्हें फोड़ सकता हूं।
जो आंखें
सबको बराबर नहीं देखतीं
उन्हें खोंच सकता हूं।
दो दंत पंक्तियां
अच्छी बातें नहीं बोलतीं
उन्हें लहूलुहान कर सकता हूं।

फिर तुम क्या हो ?
मेरे/सींक के 
तोड़कर दो हिस्से नहीं कर सकते।
और अगर में सींकों का गट्ठर जो बन जाऊंगा तो 
फिर क्या ?

लड़ोगे मुझ से ?
आओ कर लो दो-दो हाथ
पर कह देता हूं इतना
में सरल-नाजुक
नहीं.....
मैं हूं सींक/ तिनका।

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