शनिवार, 11 सितंबर 2010

'लौ'

को कूं- 
मौत आली 
`मिं मरि जूंल´
मिं त एक चड़ छुं
दुसा्र फांग में उड़ि जूंल।

को कूं-गाड़ आली 
`मिं बगि जूंल´
मिं त एक ढीक छुं
बस, दुसार ढीक कैं चै रूंल।

को कूं-दौलत आली
`मिं बदई जूंल´
मिं आफ्फी अनमोल छुं
बस, आपूं कैं बचै बेर धरूंल।

मिं काल छुं,बिकराल छुं,
डरो मिं बै।
नानूं भौ छुं,
लाड़ करो मि हुं।
मिं बर्मा-बिश्नु-महेश
मिं बखत जस बलवान छुं।
आदिम कैं मैंस बणूणीं
दुणिया्क कण-कण में बसी
कॉ न्हैत्यूं-को न्हैत्यूं,
यॉं लै छुं-तां लै छुं।
जां जरूरत पड़ैलि-
वां मिलुंल,
थापि दियो कत्ती-न हलकुंल,
बौयां छुं मिं, सोल हात लंब लै।

अरे ! मिं कैं ढुंढण हुं-
कां हिटि दि गोछा ?
मिं तुमा्र भितर-
मिं आपंण भितर
मिं `लौ´।
हिंदी भावानुवाद: लौ 



कौन कहता है-
मौत आऐगी 
तो `मैं मर जाउंगा´ 
मैं तो एक परिन्दा हूं
दूसरी शाखा में उड़ जाउंगा।

कौन कहता है-तेज नदी आऐगी तो
`मैं बह जाउंगा´
मैं तो एक किनारा हूं
बस, दूसरे किनारे को देखता रहूंगा।

कौन कहता है-दौलत आऐगी तो
`मैं बदल जाउंगा´
मैं खुद ही अनमोल हूं
बस, स्वयं को बचा कर रखुंगा।

मैं काल हूं, विकराल हूं,
डरो मुझसे।
छोटा बच्चा हूं,
स्नेह करो मुंझसे।
मैं ब्रह्मा, बिष्णु, महेश
मैं समय सा बलवान हूं।
व्यक्ति को मनुष्य बनाने वाला
दुनियां के कण-कण में बसा
कहां नहीं हूं-कौन नहीं हूं,
यहां भी हूं, तहां भी।
जहां जरूरत पड़ेगी
वहां मिलुंगा,
स्थापित कर दो कहीं-नहीं हिलुंगा,
बौना हूं में, विराट भी।

अरे ! मुझे ढूंढने 
कहां चल दिऐ ?
मैं तुम्हारे भीतर-
मैं अपने भीतर
मैं `लौ´।

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

कि ल्येखूं

कि दि सकूं मिं
कैकैं लै ?
वी, 
जि-
मकें मिलि रौ
दुनीं बै।

कि सु नई सकूं मिं
कैकैं लै ?
वी, 
जि-
पढ़ि-सुणि-गुणि
राखौ यैं बै।

कि ल्येखि सकूं मिं
त्वे हुं ?
वी,
जि-
त्वील, कि कैलै
कत्ती-कबखतै
कौ हुनलै
कि ल्यख हुनल
जरूड़ै।

अतर-
कॉ बै ल्यूंल मिं
के, तुकैं दिंण हुं,
कि सुणूंल तुकैं नईं ?
कि ल्यखुंल त्वे हुं
अलगै
य दुनी है !
मिं के परमेश्वर जै कि भयूं ।

हिंदी भावानुवाद: क्या लिखूं 


क्या दे सकता हूं मैं
किसी को भी ?
वही,
जो-
मुझे मिला है
दुनिया से।

क्या सुना सकता हूं मैं
किसी को भी ?
वही, जो-
पढ़-सुन, समझ
रखा है यहीं से।

क्या लिख सकता हूं मैं
तुम्हारे लिऐ ?
वही,
जो-
तुमने, या किसी और ने
कहीं-कभी
कहा होगा
अथवा लिखा होगा
जरूर ही।

अन्यथा-
कहां से लाउंगा मैं
कुछ, तुझे देने को,
क्या सुनाउंगा तुम्हें नयां ?
क्या लिखुंगा तुम्हारे लिऐ
अलग ही
इस दुनिया से।
मैं परमेश्वर तो नहीं हूं नां।

रविवार, 29 अगस्त 2010

सिणुंक


ठौक लगूंण है पैली
समझि लियो इतुक
मिं सितिल-पितिल 
खालि उस-यस
दाड़ खचोरणीं,
कान खजूणीं,
कौ भड्यूणीं क्यड़ जस
नैं....कत्तई नैं।

मिं सिढ़ि बंणि
तुमा्र पुरखन कें
सरग पुजै सकूं,
सूंड में फैटि बेर
हा्थि कें लै फरकै सकूं,

जो कान
सांचि न सुंणन-
फोड़ि सकूं,
जो आं्ख
बरोबर न द्यखन्-
खोचि सकूं,
जो दाड़
भलि बात त बुलान-
ल्वयै सकूं।

फिरि तुमि कि छा ?

म्या्र/सिंणुका्क 
टोड़ि बेर न करि सकना द्वि !
हौर मिं
गढ़व जै बंणि जूंलौ...
फिरि कि ?

लड़ला मिं हुं ?
आ्ओ, करि ल्हिओ ओ द्वि-द्वि हात
पर कै द्यूं इतुक
मिं सितिल-पितिल
नैं.....
मिं छुं सिणुंक।




हिन्दी भावानुवाद

छूने से पहले
समझ लो इतना
मैं सरल-नाजुक
खाली ऐसा-वैसा
दांत से फंसा निकालने
कान को खुजलाने
अथवा कौऐ (बेकार की चीजों) को जलाने वाली पतली लकड़ियों जैसा
नहीं हूं, बिल्कुल नहीं हूं।

मैं सीढ़ी बन कर 
(एक पौराणिक मान्यता के अनुसार) तुम्हारे पूर्वजों को स्वर्ग पहुंचा सकता हूं 
सूण्ड में घुस कर
हाथी को भी मार सकता हूं

जो कान
सच नहीं सुनते-
उन्हें फोड़ सकता हूं।
जो आंखें
सबको बराबर नहीं देखतीं
उन्हें खोंच सकता हूं।
दो दंत पंक्तियां
अच्छी बातें नहीं बोलतीं
उन्हें लहूलुहान कर सकता हूं।

फिर तुम क्या हो ?
मेरे/सींक के 
तोड़कर दो हिस्से नहीं कर सकते।
और अगर में सींकों का गट्ठर जो बन जाऊंगा तो 
फिर क्या ?

लड़ोगे मुझ से ?
आओ कर लो दो-दो हाथ
पर कह देता हूं इतना
में सरल-नाजुक
नहीं.....
मैं हूं सींक/ तिनका।

शनिवार, 10 जुलाई 2010

ढुड.

(लखु उड्यार शैलाश्रय : अल्मोड़ा जनपद में स्थित स्थान जहाँ पाषाण कालीन मनुष्य द्वारा बनाए गए भित्ति चित्र आज भी शिलालेखों के रूप में मौजूद हैं, कहते हैं यहाँ मनुष्य ने गर्मी-बरसात से आश्रय लेते हुए यह चित्र बनाए )
ढुड. जब घन्तर बणनीं
ठुल-ठुल एकना्ली-द्विना्ली लै
सिलाम करनीं उनूकैं
ट्याड़-ट्याड़नैकि कपा्ई फोड़ि 
करि दिनीं सिदि्द,
कूनीं-
झन करिया कुकाम
झन जाया कुबा्ट।
मैंस जब-जब भबरीनीं
ढुंड. है जानीं तिख
बुड़नीं खुटों में
करि दिनीं ल्वेयोव
कि ढ्या्स लागि 
घुर्ये  दिनीं भ्योव
पुजै दिनीं पताव।

मैंस जब जा्नीं भा्ल बा्ट
ढुड. बणि जा्नीं द्याप्त
क्वे ग्वल्ल, क्वे गंगनाथ
क्वे ब्रह्मा, बिश्णु, महेश लै
गाड़ में बगि-बगि बेर 
गंगल्वाड़ बणि जानीं शिवलिंग
भलि अशीक दिनीं
जि मांगौ दि दिनीं।

जांणि कतू काम
मस्याल घैसंण, धान कुटंण, ग्युं पिसंण
गा्ड़-कुड़, इचा्ल-कन्हा्व
कां न ला्गन ढुड.
औंव खून लागि गयौ
घ्यू में छौंकि चाटी जानीं ढुड.।

पर आज 
ढुड.ौकि  के कदर न्है
लत्यायी, जोत्याई 
बुसिल-पितिल समझि
ख्येड़ी-फोड़ी
द्वि-द्वि डबल में गा्ड़-स्या्र खंड़ि
बेची जांणईं ढुड.।

भो यै ढुड.
यं आजा्क बा्टाक रर्वा्ड़
बंणि जा्ल `माइलस्टोन´
ल्येखी जा्ल इनूं पारि
बखता्क कुना्व
शिलालेख बंणि जा्ल यं
सुंई-सुंई बेर ढुनि
छजाई जा्ल संग्रहालयों में
पहरू द्या्ल इनर पहर
डबल लागा्ल इनूकैं द्यखणा्क।

पै कि फैद
मरी पितर भात खवै
जब ज्यून छनै
निकरि इनैरि फिकर
खालि मारि लात।
यस न हओ
तब जांलै 
घ्वेसी-घ्वेसी बेर
यं रेत है जा्ल, मटी जा्ल।

हिन्दी भावानुवाद


पत्थर


पत्थर जब पथराव में प्रयोग किऐ जाते हैं
बड़ी बड़ी बन्दूकें भी
उन्हें सलाम ठोकती हैं
टेढ़े से टेढ़े लोगों को भी सिर फोड़
कर देते हैं सीधा,
कहते हैं-
न करना बुरे काम
न जाना गलत रास्ते।
लोग जब-जब रास्ता भटकते हैं
पत्थर नुकीले हो जाते हैं
चुभते हैं पांवों में
कर देते हैं खून ही खून
या फिर 
धकिया देते हैं पहाड़ियों से
पहुंचा देते हैं पाताल।


लोग जब अच्छे रास्ते जाते हैं
पत्थर देवता बन जाते हैं। 
कोई ग्वल, कोई गंगनाथ 
कोई ब्रहमा, बिष्णु, महेश भी 
नदी में बहते हुऐ
नदी के पत्थर बन जाते हैं शिवलिंग से
अच्छी आशीष- 
जो मांगो, दे देते हैं।


जाने कितने काम
मसाला पीसने, धान कूटने, गेहूं पीसने
खेत, मकान, नींचे-ऊपर
क्हां नहीं लगते पत्थर
आंव-खून लग जाऐ तो
घी में छौंक कर चाटे भी जाते हैं पत्थर।


पर आज 
पत्थरों की कोई कद्र नहीं
ठोकर मारी जा रही उन्हें
कमजोर-बेकार समझते हुऐ
फेंके-तोड़े
बेहद सस्ते में उपजाऊ खेत, चरागाह खोदकर
बेचे जा रहे हैं पत्थर।


कल यही पत्थर
बन जाऐंगे `मील के पत्थर´
लिखी जाऐंगी इन पर 
वक्त की कुण्डलियां
शिलालेख बन जाऐंगे यह
सूंघ-सूंघ कर तलाशे जाऐंगे
सजाऐ जाऐंगे संग्रहालयों में
सैनिक करेंगे इनकी सुरक्षा
पैंसे लगेंगे इनके दर्शनों के।


पर क्या फायदा
दिवंगत पूर्वजों पर 
सर्वस्व न्यौछावर कर भी
जब जीवित रहते 
न की उनकी फिक्र
कहीं ऐसा न हो
तब तक यह 
घिस-घिस कर ही
रेत हो जाऐं, मिट्टी हो जाऐं।

गुरुवार, 20 मई 2010

राजक च्यल

मिं
आपंण बा्बुक तैं
`रा्जक च्यल´
तुमि लै
हौर सा्रि दुणीं
सब्बै,
भो म्यर भौ,
तुमर
हौर सा्रि दुणिया्क
च्या्ल लै-`रा्जक च्यल´
`राजकुमार !´

धर्ति उतुकै
जतुक छी
जुगन पैली
कसी बणा्ल सब्बै रा्ज
के् पारि करा्ल राज
लड़ा्ल नैं
करा्ल कि
लुका्र खपिरन कैं
हत्यूंण हुं।

मिं नि कूंल
आपंण भौ कैं
`रा्जक च्यल´
मिं कूंल उथैं `भौ´
सिरफ `भौ´
`म्यर भौ´
करूंल लाड़
सिरफ लाड़
अर द्यूल भलि शिक्ष
भलि बांणि
और मिं बणूंल
अर चूंल
उ बणौ
भल आदिम
सिरफ भल आदिम।



हिंदी भावानुवाद:


मैं,
अपने पिता के लिऐ
राजा बेटा
आप भी,
और सारी दुनिया-
सभी,
कल मेरा बच्चा,
आपका
और सारी दुनिया के
बच्चे भी (उनके लिए) राजा बेटे
`राजकुमार´ !

धरती उतनी ही
जितनी थी
युगों पहले
कैसे बनेंगे सभी राजा
किस पर करेंगे राज
लडेंगे नहीं तो
करेंगे क्या
दूसरों के टुकड़ों को
हथियाने के सिवाय।

मैं नहीं कहूंगा
अपने बेटे से
राजा बेटा
मैं कहूंगा उससे `बेटा´
सिर्फ `बेटा´
`मेरा बेटा´
करूंगा लाड़
सिर्फ लाड़
और दूंगा अच्छी शिक्षा
अच्छी वाणी
और मैं बनाऊंगा
और चाहूंगा
कि वह बने
अच्छा मनुष्य
सिर्फ अच्छा मनुष्य।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

तिना्ड़



तिना्ड़न कें कि चैं ?
के खास धर्ति नैं, 
के खास अगाश नैं,
के खास घाम नैं,
के खास हौ-
के खास पाणि नैं।
के मिलौ-नि मिलौ
उं रूनीं ज्यून।


किलै ? कसी ?


बांणि  पणि ग्येईं ज्यूंन रूणा्क।
अतर,
उना्र के स्वींण नैं-के क्वीड़ नैं
के खुशि नैं, के दुख-के पीड़ नैं
छन लै त ना्ना-ना्न
ना्ना खुशि-


ए घड़ि घाम मिलि गयौ
कुड़-कच्चारै सई
मणीं ठौर मिलि ग्येई
उं खुशि।
बस जौरौक पांणि
जोरौक घाम
जोरैकि हौकि डर भै।
अर उ निपटि ग्येई
ज्यान बचि ग्येई
उणि-पत्येड़ि-बगि
कैं पुजि जा्ओ
कतुकै मरि-खपि लै जा्ओ
उं फिरि लै खुशि


किलै ? कसी ?


डाड़ मारणौक टैमै नि भै
फिर आंसु  आल लै
पोछल को ?
उं क्वे नकां-मुकां खा्ई
म्वा्ट-तगा्ड़ बोट जै कि भा्य
जनूकैं चैं सबै तिर बांकि`ई बांकि
और तब लै रूनीं डाड़ै मारन।


हिन्दी भावानुवाद: `तिनके´


तिनकों को क्या चाहिए ?
कुछ खास धरती नहीं
कुछ खास आसमान नहीं
कुछ खास धूप नहीं
कुछ खास हवा-
कुछ खास पानी नहीं
कुछ मिले-ना मिले
वे रहते हैं जीवित। 


क्यों ? कैसे ?


आदत पड़ गई है जीने की।
वरना-
उनके कोई सपने नहीं-कोई बातें नहीं
कोई सुख-कोई दुख-कोई तकलीफ नहीं
हैं भी तो छोटे-छोटे
छोटी खुशियां-
एक बून्द पानी की मिल गई
तो वे खुश।
एक पल को भी धूप मिल गई
कूड़ा-कीचड़ ही सही
थोड़ी जगह मिल गई 
ते वे खुश।
बस, तेज पानी
तेज धूप
तेज हवा की डर हुई।
और यह गुजर गऐ तो
जान बच गई जो
उण-भटक-बह कर
कहीं पहुंच जाऐं
कुछ मर-खप भी जाएँ
वे फिर भी खुश।


क्यों ? कैसे ?


रोने का समय ही नहीं हुआ उनके पास
फिर आंसू आऐंगे भी तो पोछेगा कौन ?
वे कोई नांक-मुंह तक भर कर खाने वाले
मोटे-तगड़े पेड़ जो क्या हुऐ
जिन्हें चाहिऐ सभी कुछ अधिक-अधिक ही
और तब भी रहते हैं
हर समय
रोते ही। 

इसे यहाँ भी देख सकते हैं : 
http://apnimaati.blogspot.com/2010/06/blog-post_04.html

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

मेरी फोटो को अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला है ! देखें: http://www.panoramio.com/photo/30531547

Himalaya glittering like Gold early in the morning.(January 2010 - Geotagged Photo Contest Honorable mentions)



Please visit for confirmation:  http://www.panoramio.com/winners/?date=1-2010