शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

उमींद


एक दिन 
इका्र सांस लै ला्गि सकूं
ना्ड़ि लै हरै सकें,
दिन छनै-
का्इ रात !
कब्बै न सकीणीं
का्इ रात लै 
है सकें।


छ्यूल निमणि सकनीं
जून जै सकें,
भितेरौ्क भितेरै •
गोठा्ैक गोठै •
भकारौ्क भकारूनै
सा्रौक सा्रै
उजड़ि सकूं।


सा्रि दुनीं रुकि सकें
ज्यूनि निमड़ि सकें
ज्यान लै जै सकें।


पर एक चीज
जो कदिनै लै
न निमड़णि चैंनि
जो रूंण चैं
हमेशा जिंदि
उ छू- उमींद 
किलैकी-
जतू सांचि छु
रात हुंण
उतुकै सांचि छु
रात ब्यांण लै।

हिन्दी भावानुवाद: उम्मीद


एक दिन 
इकतरफा सांस (मृत्यु के करीब की) शुरू हो सकती है
नाड़ियां खो सकती हैं
दिन में ही-
काली रात !
कभी समाप्त न होने वाली
काली रात
हो सकती है।


दिऐ बुझ सकते हैं
चांदनी भी ओझल हो सकती है
भीतर का भीतर ही
निचले तल (में बंधने में बंधने वाले पशु) निचले तल में ही
भण्डार में रखा (अनाज या धन) भण्डार में ही
खेतों का (अनाज) खेतों में ही
उजड़ सकता है।


सारी दुनिया रुक सकती है
जिन्दगी समाप्त हो सकती है
जान जा भी सकती है।


पर एक चीज
जो कभी भी 
नहीं समाप्त होनी चाहिऐ
जो रहनी चाहिऐ
हमेशा जीवित-जीवन्त
वह है-उम्मीद
क्योंकि-
जितना सच है
रात होना
उतना ही सच है
सुबह होना भी। 

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

उदंकार

उदंकार- 
जैगड़ियोंक,
ग्यसौक-छिलुका्क रां्फनौक
ट्वालनौंक और
जूनौक जस
ज्ञानौक
जब तलक
न हुंन,
तब तलक-
लागूं अन्यारै उज्यावा्क न्यांत 


क्वे-क्वे
आं्खन तांणि
हतपलास लगै
हात-खुटन
आं्ख ज्यड़नैकि
कोशिश करनीं,


फिर लै
को् कै सकूं-
खुट कच्यारा्क
खत्त में
नि जा्ल,
हि्य कैं
क्वे डर 
न डराल कै।


हिन्दी भावानुवाद : उजाला

उजाला-
जुगनुओं का,
गैस का-छिलकों की ज्वाला का
भुतहा रोशनियों और
चांदनी की तरह
ज्ञान का 
जब तक
नहीं होता
तब तक
अंधेरा ही लगता है उजाले जैसा।


कोई-कोई
आंखों को तान कर
हाथों से टटोल कर
हाथ-पैरों में
आंखें जोड़कर
कोशिश करते हैं,


फिर भी
कौन कह सकता है (पूरे विश्वास से)
पांव कीचड़ के
गड्ढे में 
नहीं सनेंगे, 
दिल को कोई डर
नहीं डरा सकेगा।

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

लड़ैं

लड़ैं -
बेई तलक छी बिदेशियों दगै
आज छु पड़ोसियों दगै
भो हुं ह्वेलि घर भितरियों दगै।


लड़ैं -
बेई तलक छी चुई-धोतिक लिजी
आज छु दाव-रोटिक लिजी
भो हुं ह्वेलि लंगोटिक लिजी।


लड़ैं -
बेई तलक हुंछी सामुणि बै
आज छु मान्थि-मुंणि बै
भो हुं ह्वेलि पुठ पिछाड़ि बै।


लड़ैं -
बेई तलक हुंछी तीर-तल्वारोंल 
आज हुंण्ौ तोप- मोर्टारोंल
भो हुं ह्वेलि परमाणु हथ्यारोंल।

लड़ैं -
बेई तलक छी राष्ट्रत्वैकि
आज छु व्यक्तित्वैकि
भो हुं ह्वेलि अस्तित्वैकि।


हिन्दी भावानुवाद : लड़ाई


लड़ाई- 
कल तक थी विदेशियों के साथ
आज है पड़ोसियों के साथ
कल होगी घर के भीतर वालों के साथ।


लड़ाई- 
कल तक थी चोटी और धोती (बड़ी-छोटी) के लिए
आज है पड़ोसियों के साथ दाल-रोटी के लिए
कल होगी लंगोटी के लिए।


लड़ाई- 
कल तक होती थी सामने से
आज होती है ऊपर-नींचे (जल-थल) से
कल होगी पीठ के पीछे से।


लड़ाई- 
कल तक होती थी तीर-तलवारों से
आज होती है तोप और मोर्टारों से
कल होगी परमाणु हथियारों से।


लड़ाई- 
कल तक थी राष्ट्रत्व के लिए
आज है व्यक्तित्व के लिए
कल होगी अस्तित्व के लिए।

सोमवार, 1 नवंबर 2010

चिनांड़

आजा्क अखबारों में छन खबर
आतंकवाद, हत्या, अपहरण, 
चोर-मार, लूट-पाट, बलात्कार
ठुल हर्फन में
अर ना्न हर्फन में
सतसंग, भलाइ, परोपकार।


य छु पछ्यांण
आइ न है रय धुप्प अन्या्र
य न्है, सब तिर बची जांणौ्क निसांण
य छु-आ्जि मस्त
बचियक चिनांड़।


किलैकि ठुल हर्फन में
छपनीं समाचार
अर ना्न हर्फन में-लोकाचार।


य ठीक छु बात
समाचार बणनईं लोकाचार
अर लोकाचार-समाचार।
जसी जाग्श्यरा्क जागनाथज्यूक
हातक द्यू
ऊंणौ तलि हुं। 


संचि छु हो,
उरी रौ द्यो,
पर आ्इ लै छु बखत।
जदिन समाचार है जा्ल पुररै लोकाचार
और लोकाचार छपा्ल ठुल हर्फन में
भगबान करों
झन आवो उ दिन कब्भै। 

हिन्दी भावानुवाद

आज के अखबारों में हैं खबर
आतंकवाद, हत्या, अपहरण
चोरी, डकैती व बलात्कार की
मोटी हेडलाइनों में
और छोटी खबरें
सतसंग, भलाई व परोपकार की।


यह पहचान है
अभी नहीं घिरा है धुप्प अंधेरा।
यह नहीं है पहचान, सब कुछ खत्म हो जाने की
यह है अभी बहुत कुछ 
बचे होने के चिन्ह।


क्योंकि मोटी हेडलाइनों में छपते हैं समाचार
और छोटी खबरों में लोकाचार।
हां यह ठीक है कि 
समाचार बन रहे लोकाचार
जैसे जागेश्वर में जागनाथ जी की मूर्ति के हाथों का दीपक
आ रहा है नींचे की ओर।


सच है, 
आने वाली है जोरों की बारिश प्रलय की
पर अभी भी समय है
जब समाचार पूरी तरह बन जाऐंगे लोकाचार, 
और लोकाचार छपेंगे मोटी हेडलाइनों में।
ईश्वर करें
ऐसा दिन कभी न आऐ।

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

पछ्यांण

मिहवा्क बोट में नाशपाति
आरुक बोट में खुमानि-कुशम्यारु
गुलाबा्क डा्व में 
नौ-नौ रंगोंक फुल्यूड़
स्यैंणियोंक आंग मैंसोंक,
अर मैंसोंक आंड.
स्यैंणियों लुकुड़/मिजात....


धरम भबरी मैंस
कि छु कैकि असलियत
कि छु कैकि पछ्यांण...
को् जा्णूं ?
उं आफ्फी न जांणन
बस, ला्गि रयीं जमाना्क टंटन में 
घ्येरी रयीं कंछ-मंछन में
पत्तै न्हें, कां हुं...
अर किलै जांणईं...।
पड़ि रै फिकर
छींक पुजण्ौकि
दुसरों कैं ध्वा्क दिंण्ौकि !
पत्तै न्है
क कैं दिंणई असल ध्वा्क।


पछ्यांण...हस्ति !
कतू सस्ति ?
लुकुड़,ज्वा्त/जुंड.-दाड़ि-बाव
बदइ,
बदइ जांण्ौ अस्ती •


बिकास ?
दुसरोंक जस करण-अदपुरै
पताव जांण-चांण अगास
असलियत ?
नि छी जब लुकुड़
कि पैद हुंण बखत
जा्स छियां नंग
आ्ब छन लुकुड़ै
दुसरोंकि हौंसि
हुंड़यां नंग।
कि यै छु हमैरि
पछयांण ?
हमर विकास ?
कि बचि रौ 
हमूं में हमर चिनाड़  ?


हिन्दी भावानुवाद

मेहल के पेड़ में
नाशपाती (कलम कर के लगाई हुई)
आड़ूं के पेड़ में खुमानी
गुलाब की टहनी में
नऐ-नौ रंगों के फूल
महिलाओं के शरीर में पुरुषों
और पुरुषों के शरीर में 
महिलाओं के कपड़े/फैशन।


धर्म भ्रष्ट लोग
क्या है किसकी असलियत
क्या है किसकी पहचान
कौन जाने ?
वह खुद भी नहीं जानते
बस लगे हैं जोड़-तोड़ में
घिरे हुऐ हैं बाल-बच्चों में
पता ही नहीं है, कहां जा रहे हैं...
क्यों जा रहे हैं।
फिक्र में हैं
जल्दी पहुचने को
दूसरों को धोखा देने को !
पता ही नहीं है
किसे दे रहे हैं वास्तव में धोखा ?


पहचान/हस्ती
कितनी सस्ती ?
कपड़े-जूते, दाढ़ी-मूंछ-बाल
बदलकर,
बदल जा रही है पूरी
विकास ?
दूसरों का अधूरा ही सही अंधानुकरण करना
पाताल जाना-और आकाश की ओर देखना
असलियत ?
नहीं थे जब कपड़े
या कि पैदा होते वक्त
जैसे थे नग्न
अब कपड़े होते हुऐ भी 
हो रहे हैं नग्न
क्या यही है हमारी
पहचान ?
हमारा विकास ?
क्या बचा है 
हम में हमारा (शिनाख्त को) चिन्ह।

शनिवार, 11 सितंबर 2010

'लौ'

को कूं- 
मौत आली 
`मिं मरि जूंल´
मिं त एक चड़ छुं
दुसा्र फांग में उड़ि जूंल।

को कूं-गाड़ आली 
`मिं बगि जूंल´
मिं त एक ढीक छुं
बस, दुसार ढीक कैं चै रूंल।

को कूं-दौलत आली
`मिं बदई जूंल´
मिं आफ्फी अनमोल छुं
बस, आपूं कैं बचै बेर धरूंल।

मिं काल छुं,बिकराल छुं,
डरो मिं बै।
नानूं भौ छुं,
लाड़ करो मि हुं।
मिं बर्मा-बिश्नु-महेश
मिं बखत जस बलवान छुं।
आदिम कैं मैंस बणूणीं
दुणिया्क कण-कण में बसी
कॉ न्हैत्यूं-को न्हैत्यूं,
यॉं लै छुं-तां लै छुं।
जां जरूरत पड़ैलि-
वां मिलुंल,
थापि दियो कत्ती-न हलकुंल,
बौयां छुं मिं, सोल हात लंब लै।

अरे ! मिं कैं ढुंढण हुं-
कां हिटि दि गोछा ?
मिं तुमा्र भितर-
मिं आपंण भितर
मिं `लौ´।
हिंदी भावानुवाद: लौ 



कौन कहता है-
मौत आऐगी 
तो `मैं मर जाउंगा´ 
मैं तो एक परिन्दा हूं
दूसरी शाखा में उड़ जाउंगा।

कौन कहता है-तेज नदी आऐगी तो
`मैं बह जाउंगा´
मैं तो एक किनारा हूं
बस, दूसरे किनारे को देखता रहूंगा।

कौन कहता है-दौलत आऐगी तो
`मैं बदल जाउंगा´
मैं खुद ही अनमोल हूं
बस, स्वयं को बचा कर रखुंगा।

मैं काल हूं, विकराल हूं,
डरो मुझसे।
छोटा बच्चा हूं,
स्नेह करो मुंझसे।
मैं ब्रह्मा, बिष्णु, महेश
मैं समय सा बलवान हूं।
व्यक्ति को मनुष्य बनाने वाला
दुनियां के कण-कण में बसा
कहां नहीं हूं-कौन नहीं हूं,
यहां भी हूं, तहां भी।
जहां जरूरत पड़ेगी
वहां मिलुंगा,
स्थापित कर दो कहीं-नहीं हिलुंगा,
बौना हूं में, विराट भी।

अरे ! मुझे ढूंढने 
कहां चल दिऐ ?
मैं तुम्हारे भीतर-
मैं अपने भीतर
मैं `लौ´।

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

कि ल्येखूं

कि दि सकूं मिं
कैकैं लै ?
वी, 
जि-
मकें मिलि रौ
दुनीं बै।

कि सु नई सकूं मिं
कैकैं लै ?
वी, 
जि-
पढ़ि-सुणि-गुणि
राखौ यैं बै।

कि ल्येखि सकूं मिं
त्वे हुं ?
वी,
जि-
त्वील, कि कैलै
कत्ती-कबखतै
कौ हुनलै
कि ल्यख हुनल
जरूड़ै।

अतर-
कॉ बै ल्यूंल मिं
के, तुकैं दिंण हुं,
कि सुणूंल तुकैं नईं ?
कि ल्यखुंल त्वे हुं
अलगै
य दुनी है !
मिं के परमेश्वर जै कि भयूं ।

हिंदी भावानुवाद: क्या लिखूं 


क्या दे सकता हूं मैं
किसी को भी ?
वही,
जो-
मुझे मिला है
दुनिया से।

क्या सुना सकता हूं मैं
किसी को भी ?
वही, जो-
पढ़-सुन, समझ
रखा है यहीं से।

क्या लिख सकता हूं मैं
तुम्हारे लिऐ ?
वही,
जो-
तुमने, या किसी और ने
कहीं-कभी
कहा होगा
अथवा लिखा होगा
जरूर ही।

अन्यथा-
कहां से लाउंगा मैं
कुछ, तुझे देने को,
क्या सुनाउंगा तुम्हें नयां ?
क्या लिखुंगा तुम्हारे लिऐ
अलग ही
इस दुनिया से।
मैं परमेश्वर तो नहीं हूं नां।