सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

राजअनीति


राजनीति नहीं
राजअनीति की दूकान में,
जिसकी जेब में हैं वोट
उसी की है पूछ
सब कुछ हो सकता है
लंगड़ा घोडा भी आ सकता है पहला.

जो जितना बड़ा है कुकर्मी
उतना ही बड़ा नेता (?) अनेता...
जनता, बेवकूफ निपट निर्बुध्धि
उसका ही पीसा जाता है आटा
उसका ही पेरा जाता है तेल
और खाने को उसीके लिए
आधा पेट बिना नमक का जौला.

कागजों की है अजब माया
केवल कागजों का ही मुंह काला कर
समेटे जाते हैं कागज़ के हरे-हरे नोट
कागजों में ही बन जाते हैं
स्कूल-अस्पताल-रोड
कागज में ही चल जाती है रेल
बस चलाने वालों के लिए सब कुछ विस्तृत,
खुला-खुला...

हर ओर है असर
क्या इलाज, क्या पढ़ाई, क्या खाना-पीना
सब बना दिए हैं खेल
बस खेल ही नहीं रह गए है खेल
खेलों में हो रहे खेल
क्या ओलम्पिक-क्या हाकी-क्या क्रिकेट...
कर दी है देश की टीम की हालत
मुझ सी
हर ओर खुशी-सबकी आँखों की किरकिरी
असल इम्तिहान में फेल...

बातें इनकी
हाथी के से दांत..
बढ़ाएंगे दुश्मनी
मुंह से इकट्ठा होने को कहेंगे.
न्याय, लोकतंत्र, अखबार भी
दुर्भाग्य!
बनने लगे हैं इनकी फुटबौल

मर रहे है लोग
मारे-काटे जा रहे हैं
जल रहे हैं गरीबों के घरोंदे
पहुंचेगी आंच क्या कभी इन तक
होंगे किसी दिन देवता सुफल
तपेंगे क्या कभी इनके सोने के महल
जागेंगे क्या लोग 
भरेंगे क्या इनके कुकर्मों के घड़े...?


















......नवीन जोशी  
(मेरी कुमाउनी कविता 'राजअनीति' का भावानुवाद)

10 टिप्‍पणियां:

  1. जनता इनके घड़ों में छेद करती ही नहीं. या कहिये कि जनता को वह औजार दिया ही नहीं जो इनके घड़ों में छेद कर सके.

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  2. भर तो रहे हैं घडे़
    और जिस दिन फूटेंगे
    कई सुकर्मी शहीद हो जायेगे
    इन कुकर्मी घडों के मलबों के नीचे दब के

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  3. धन्यवाद सभी का, इतनी सुन्दर उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाओं के लिए.

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. It has come out very well and effective. Aap pustak prakashan nahi kar rahe?

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