वाह ! वे दिन
जब मैं भी था पूरा मनुष्य सा... 
दसों दिशाओं को देखने वाली आखें  
हाथी सी जंघाएँ  
बृषभ से कंधे 
मजबूत सुदर्शन शरीर...  
कान की जगह कान 
हाथ  की जगह हाथ 
पांवों की जगह पाँव  
और मस्तिस्क की जगह मस्तिस्क.  
और एक ये दिन 
जब मेरे ही हाथ, घूंसे ताने है मेरे ही शरीर पर 
पाँव लात मार रहे हैं, मस्तिस्क को
कान नहीं सुन रहे, मुंह के बोले शब्द  
दिमांग नहीं समझ रहा, आँखों के देखे दृश्य 
अँगुलियों ने पकड़ बंद कर ली है नाक, 
सूंघने नहीं दे रहीं 
दांतों ने कैद कर ली है जीभ,
चखने नहीं दे रहे
सब अलग अलग हो रहे हैं  
शरीर से गिर रहे हैं, एक एक कर   
और बनाने लगे हैं अपने अलग अलग शरीर...
हाथों, पावों...
यहाँ तक की शिर के बालों ने भी 
गिर कर बना लिए हैं, अपने अलग शरीर 
और रख लिए हैं, अलग अलग, 
बाज़ार मैं बेचने को रखे मांस के हिस्सों की तरह....  
अब पावों के पास आखें नहीं है 
आँखों के पास  मस्तिस्क नहीं है 
और मस्तिस्क के पास हाथ नहीं.. 
किसी के पास अपने अलावा कुछ नहीं....  
मैं, 'परिवार' कहते थे जिसे  
टुकड़े टुकड़े हो गया हूँ.
मैं देख रहा हूँ  
वे परेशान हो गए हैं, आ रहे हैं वापस  
मैं हाथ पसारे बैठा हूँ
क्या मैं सपना देख रहा हूँ?   
.....नवीन जोशी
(मेरी कुमाउनी कविता 'कुन्ब' का भावानुवाद)
 
