यहाँ है मेरी कुमाउनी कविताओं का भावानुवाद, कविता मेरे लिए हैं मन के भीतर की उथल पुथल, जो बाहर आने के लिए मुझे व्याकुल कर देती हैं. सयास निकलती हैं, कोई प्रयास नहीं करना पड़ता.. कोई तुकबंदी भी नहीं.
वैसे यह मेरी भी नहीं हैं, यह मेरे पूरे परिवेश की हैं, क्योंकि यह वहीँ से विचारों के साथ मेरे भीतर गयी हैं. मैंने इन्हें रचा भी नहीं, मैं कुछ रच भी नहीं सकता. मैं ब्रह्मा तो नहीं हूँ ना...
हमारे गाँव में, अब पहले सी बात ही नहीं, कि जैसे पेड़ का, जड़ों से कोई वास्ता ही नहीं. चमन में उड़ने का शौक तो सबको ही है, पर अपने परों को कोई तोलता ही नहीं. कहाँ से आयेगी नई हवा, और कैसे आयेगी, अपने घरों के झरोखे कोई खोलता ही नहीं. वही एक मेरे दिल में बैठा हुआ है, वह जिससे मैं कभी ठीक से मिला ही नहीं. कैसे कहूँ मां, मैं सजाऊंगा तुम्हें, मेरी आशाओं का बुरांश कभी खिला ही नहीं. आ गया हूँ जीवन के उस आख़िरी पड़ाव पर जहाँ सीढियां तो हैं मगर पैर ही नहीं. 'आकाश छुवैंगे' 'आकाश छुवैंगे' तो सभी कह रहे पर लहू मैं किसी के वैसी गर्मी ही नहीं. जो नदी बहा रही है, वही क्या पार लगाएगी हमें, थोडा सा भी कोई डूबते का तिनका ही नहीं. होगा उजाला और एक दिन जरूर ही होगा,
मैं जानता हूँ, ऐसी कभी न खत्म होने वाली, कोई रात ही नहीं.
.....नवीन जोशी (मेरी कुमाउनी कविता 'हमर गौं में ' का भावानुवाद)
अँधेरा है अभी, मैं मान भी लूँ तुम्हारी बात पर फिर होगा उजाला, मुझे भरोसा है. खाली 'देखा-देखंगे' कहने वाले, दिखायेंगे कुछ कर के बकवास छोड़ होंगे कार्य को उद्यत, मुझे भरोसा है. काले कारनामे-सफ़ेद वस्त्र, स्वांग रच जो बने हैं प्रधान होगा उनका मुंह काला, मुझे भरोसा है. दूसरों के घर जलाने वाले, समझेंगे सबको अपना संभालेंगे देश को, मुझे भरोसा है. आंखें बंद कर भागने वाले, भागेंगे नहीं अंधी दौड़ में देखेंगे ऊपर-नीचे हर तरफ, मुझे भरोसा है. जन्मान्धों की भी खुलती हैं आखें, कभी तो टूटती है नींद बदले जाते हैं चोले, आते हैं मेले, मुझे भरोसा है. दिन में ही घिर सकता है अँधेरा, हो सकती है रात भी हाथों में थामी जायेंगी मशालें, मुझे भरोसा है. लगा है कोहरा झूठ का, सच की आँखों में पट्टा बरसेंगे शीघ्र बादल, मुझे भरोसा है. कहाँ जायेगी हंसी, और क्यों, सामने ही आ मिलेगी जाना नहीं पड़ेगा तलाशने, मुझे भरोसा है.
....नवीन जोशी (मेरी कुमाउनी कविता 'भरौष' का भावानुवाद )
कौन मानेगा मेरी सच जब मैं कहूँगा- सच होता है कई प्रकार का. सोते हुए पीठ के नीचे धरती खड़े होते हुए पांवों के नीचे धरती और चन्द्रमा में जाकर हो सकता है सर के ऊपर हो धरती, तो हुआ न सच कई प्रकार का ? सोते हुए का सच अलग, जागे हुए का सच अलग बैठे, खड़े व 'उठे' हुए के सच भी अलग अलग आँखों देखा, कानों सुना हाथों से छुवा, जीभ से चखा, तोड़ा-मरोड़ा सच भी अलग फिर पुराना सच-नयां सच झूठा सच-सच्चा झूठ और एक वह सच भी जो पापा ने झूठ सिखाया था "सच पुण्य और झूठ बोलना पाप" सच बोलना तो आजकल हो गया है सबसे बड़ा पाप हो रहा है नीलाम हर चौराहे में द्रौपदी की चीर की तरह ठहर नहीं पा रहा झूठ की ताकत के समक्ष कौन मानेगा मेरी सच जब में कहूँगा- भगवान भी होते हैं दो प्रकार के एक वे जो हमें पैदा करते हैं, और दूसरे वो जिन्हें हम पैदा करते हैं उनकी मूर्ति बना कोइ देख रहा हो तो जोर जोर से पहले सर और फिर पूरे शरीर को भी झूमाकर जय-जय कर नाचते भी हैं, खुद भी देवता बन जाते है, बड़े-बड़े उपदेश देते हैं जो जितना चढ़ावा चढ़ाये उतना ही प्रसाद देते हैं, वी. आई. पी. आ जायें तो उन्हें अन्दर लाने खुद मंदिर से बाहर भी निकल आते हैं. परेशान लोगों के दुःख हरने के बदले मुर्गियां-बकरियां मांगते हैं, उनके नाम पर राजनीति करते हैं...दुकान चलाते हैं....
......नवीन जोशी (मेरी कुमाउनी कविता 'झुठी-सांचि' का भावानुवाद )
कौन हैं हम ? स्कूल जाने वाले विद्यार्थी नहीं, शिक्षक नहीं, क्या ट्यूटर ? अस्पताल जाने वाले चिकित्सक नहीं, शल्यक नहीं, क्या चीड़-फाड़ करने वाले कसाई ? घर-सड़क बनाने वाले इंजीनियर नहीं, ठेकेदार नहीं, सीमेंट-सरिया चुराने वाले चोर- लुटेरे ? राजनीति करने वाले जनता के सेवक नहीं, विकास लाने वाले नेता नहीं, देश बेचने वाले दलाल ? कोर्ट- कचहरी जाने वाले वकील नहीं, जज नहीं, अन्याय करने वालों को बचाने वाले सीधे साधे लोगों को लूटने- मारने वाले... गुंडे ? समाज में रहने वाले किसी के पड़ोसी नहीं, किसी के ईष्ट-मित्र नहीं, सिर्फ पैसों के गोबरी कीड़े ? लक्ष्मी के पुजारी नहीं,
सवारी...उल्लू ?
.... नवीन जोशी (मेरी कुमाउनी कविता 'को छां हम' का भावानुवाद. )