शनिवार, 24 अगस्त 2013

गाड़ ऐ रै...

ओ उच्च अगाश में भैटी ता्रो
मणीं मुंणि हुणि त चा्ओ !
बचै ल्हिओ म्या्र घर कैं
वां गाड़ ऐ रै।
हर तरफ बगणौ गरम पांणि
खून कूंछी-जकैं मैंस
मलि जिहाज में उड़ि
सरकार चुनावौ्क निसांण ल्यै रै।
मिं लै जै ऊंछी मणीं,
सुणि ऊंछी वीक हवाइ स्वींण
कि करूं म्यर नौं कै बेर
उ इतू टाड़ बै ऐ रै।
म्या्र गिजन हासिल न्हैं हंसि
चलो यौ के बात नि भै
यां तौ सबूकै लिजी
आंसनै्कि यैसि गाड़ ऐ रै।
म्या्र घर लै ऊंछी सौंण
झुलछी झुल भै-बैंणी
अफसोस आ्ब न लागा्ल
पैलियै यैसि डाड़ ऐ रै।
समेरि हा्ली मैंल लै
आपंण समान, छा्र और मा्ट
पर भा्जूं त कॉ भाजूं
मैंस कूनईं-भा्जो बाड़ ऐ रै।



2 टिप्‍पणियां:

  1. अत्यन्त ह्रुदय्स्पर्षी कविता है. कविता में व्यक्त त्रासदी को साथ मे छपे हुऐ चित्र ने और भी गहरा कर दिया, जिसे शब्दों मे व्यक्त नहीं किया जा सकता है.
    मोहन चन्द्र जोशी.

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  2. धन्यवाद जोशी जी, यह कविता मैंने कोई 20 वर्ष पूर्व 1994 में लिखी थी, मेरे सद्य प्रकाशित कुमाउनी कविता संग्रह 'उघडी आँखोंक स्वींण' में संग्रहीत है…
    प्रदेश में आयी दैवीय आपदा में भी मुझे कुछ हद तक प्रासंगिक लगी…

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