रविवार, 10 जनवरी 2010

हमारे गाँव में




हमारे गाँव में, अब पहले सी बात ही नहीं,
कि जैसे पेड़ का, जड़ों से कोई वास्ता ही नहीं.


चमन में उड़ने का शौक तो सबको ही है,
पर अपने परों को कोई तोलता ही नहीं.


कहाँ से आयेगी नई हवा, और कैसे आयेगी, 
अपने घरों के झरोखे कोई खोलता ही नहीं.


वही एक मेरे दिल में बैठा हुआ है,
वह जिससे मैं कभी ठीक से मिला ही नहीं.


कैसे कहूँ मां, मैं सजाऊंगा तुम्हें, 
मेरी आशाओं का बुरांश कभी खिला ही नहीं.


आ गया हूँ जीवन के उस आख़िरी पड़ाव पर
जहाँ सीढियां तो हैं मगर पैर ही नहीं.


'आकाश छुवैंगे' 'आकाश छुवैंगे' तो सभी कह रहे
पर लहू मैं किसी के वैसी गर्मी ही नहीं.


जो नदी बहा रही है, वही क्या पार लगाएगी हमें,
थोडा सा भी कोई डूबते का तिनका ही नहीं.


होगा उजाला और एक दिन जरूर ही होगा,

मैं जानता हूँ, ऐसी कभी न खत्म होने वाली, कोई रात ही नहीं. 












.....नवीन जोशी 
(मेरी कुमाउनी कविता 'हमर गौं में ' का भावानुवाद)

मुझे भरोसा है




अँधेरा है अभी, मैं मान भी लूँ तुम्हारी बात
पर फिर होगा उजाला, मुझे भरोसा है.


खाली 'देखा-देखंगे' कहने वाले, दिखायेंगे कुछ कर के
बकवास छोड़ होंगे कार्य को उद्यत, मुझे भरोसा है.


काले कारनामे-सफ़ेद वस्त्र, स्वांग रच जो बने हैं प्रधान
होगा उनका मुंह काला,  मुझे भरोसा है.


दूसरों के घर जलाने वाले, समझेंगे सबको अपना
संभालेंगे देश को, मुझे भरोसा है.


आंखें बंद कर भागने वाले, भागेंगे नहीं अंधी दौड़ में
देखेंगे ऊपर-नीचे हर तरफ, मुझे भरोसा है.


जन्मान्धों की भी खुलती हैं आखें, कभी तो टूटती है नींद
बदले जाते हैं चोले, आते हैं मेले, मुझे भरोसा है.


दिन में ही घिर सकता है अँधेरा, हो सकती है रात भी
हाथों में थामी जायेंगी मशालें, मुझे भरोसा है.


लगा है कोहरा झूठ का, सच की आँखों में पट्टा
बरसेंगे शीघ्र बादल, मुझे भरोसा है.


कहाँ जायेगी हंसी, और क्यों, सामने ही आ मिलेगी
जाना नहीं पड़ेगा तलाशने, मुझे भरोसा है.













....नवीन जोशी
(मेरी कुमाउनी कविता 'भरौष' का भावानुवाद )

शनिवार, 9 जनवरी 2010

झूठ-सच




कौन मानेगा मेरी सच 
जब मैं कहूँगा-
सच होता है कई प्रकार का. 


सोते हुए पीठ के नीचे धरती 
खड़े होते हुए पांवों के नीचे धरती
और चन्द्रमा में जाकर हो सकता है
सर के ऊपर हो धरती,


तो हुआ न सच कई प्रकार का ?


सोते हुए का सच अलग, जागे हुए का सच अलग
बैठे, खड़े व 'उठे' हुए के सच भी अलग अलग
आँखों देखा, कानों सुना
हाथों से छुवा, जीभ से चखा, 
तोड़ा-मरोड़ा सच भी अलग
फिर पुराना सच-नयां सच
झूठा सच-सच्चा झूठ


और एक वह सच भी
जो पापा ने झूठ सिखाया था
"सच पुण्य और झूठ बोलना पाप"


सच बोलना तो आजकल
हो गया है सबसे बड़ा पाप 
हो रहा है नीलाम हर चौराहे में 
द्रौपदी की चीर की तरह
ठहर नहीं पा रहा
झूठ की ताकत के समक्ष 


कौन मानेगा मेरी सच
जब में कहूँगा-
भगवान भी होते हैं 
दो प्रकार के


एक वे 
जो हमें पैदा करते हैं,
और दूसरे वो
जिन्हें हम पैदा करते हैं
उनकी मूर्ति बना 
कोइ देख रहा हो तो 
जोर जोर से
पहले सर और फिर
पूरे शरीर को भी झूमाकर
जय-जय कर नाचते भी हैं,
खुद भी देवता बन जाते है,
बड़े-बड़े उपदेश देते हैं 
जो जितना चढ़ावा चढ़ाये 
उतना ही प्रसाद देते हैं, 
वी. आई. पी. आ जायें तो 
उन्हें अन्दर लाने
खुद मंदिर से बाहर भी निकल आते हैं.
परेशान लोगों के दुःख हरने के बदले
मुर्गियां-बकरियां मांगते हैं,
उनके नाम पर राजनीति करते हैं...दुकान चलाते हैं....










......नवीन जोशी 
(मेरी कुमाउनी कविता 'झुठी-सांचि' का भावानुवाद )

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

कौन हैं हम ?




कौन हैं हम ?
स्कूल जाने वाले
                         विद्यार्थी नहीं,
                         शिक्षक नहीं,
                          क्या ट्यूटर ?


अस्पताल जाने वाले
                         चिकित्सक नहीं,
                         शल्यक नहीं,
                  क्या चीड़-फाड़ करने वाले 
                            कसाई ? 


घर-सड़क बनाने वाले 
                        इंजीनियर नहीं, 
                        ठेकेदार नहीं, 
               सीमेंट-सरिया चुराने वाले 
                         चोर- लुटेरे ?


राजनीति करने वाले
                        जनता के सेवक नहीं,
                        विकास लाने वाले नेता नहीं,
                             देश बेचने वाले
                                 दलाल ?


कोर्ट- कचहरी जाने वाले
                        वकील नहीं,
                        जज नहीं,        
           अन्याय करने वालों को बचाने वाले
        सीधे साधे लोगों को लूटने- मारने वाले...
                              गुंडे ?    


समाज में रहने वाले
                        किसी के पड़ोसी नहीं,
                        किसी के ईष्ट-मित्र नहीं,
                             सिर्फ पैसों के 
                             गोबरी कीड़े ? 


                        लक्ष्मी के पुजारी नहीं,

  सवारी...उल्लू ? 

















.... नवीन जोशी   
(मेरी कुमाउनी कविता 'को छां हम' का भावानुवाद. )

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

परिवार


वाह ! वे दिन
जब मैं भी था पूरा मनुष्य सा...
दसों दिशाओं को देखने वाली आखें
हाथी सी जंघाएँ
बृषभ से कंधे
मजबूत सुदर्शन शरीर...
कान की जगह कान
हा की जगह हा
पांवों की जगह पाँव
और मस्तिस्क की जगह मस्तिस्क.

और एक ये दिन
जब मेरे ही हाथ, घूंसे ताने है मेरे ही शरीर पर
पाँव लात मार रहे हैं, मस्तिस्क को
कान नहीं सुन रहे, मुंह के बोले शब्द
दिमांग नहीं समझ रहा, आँखों के देखे दृश्य
अँगुलियों ने पकड़ बंद कर ली है नाक,
सूंघने नहीं दे रहीं
दांतों ने कैद कर ली है जीभ,
चखने नहीं दे रहे
सब अलग अलग हो रहे हैं
शरीर से गिर रहे हैं, एक एक कर
और बनाने लगे हैं अपने अलग अलग शरीर...

हाथों, पावों...
यहाँ तक की शिर के बालों ने भी
गिर कर बना लिए हैं, अपने अलग शरीर
और रख लिए हैं, अलग अलग,
बाज़ार मैं बेचने को रखे मांस के हिस्सों की तरह....

अब पावों के पास आखें नहीं है
आँखों के पास मस्तिस्क नहीं है
और मस्तिस्क के पास हाथ नहीं..
किसी के पास अपने अलावा कुछ नहीं....

मैं, 'परिवार' कहते थे जिसे
टुकड़े टुकड़े हो गया हूँ.
मैं देख रहा हूँ
वे परेशान हो गए हैं, आ रहे हैं वापस
मैं हाथ पसारे बैठा हूँ
क्या मैं सपना देख रहा हूँ?












.....नवीन जोशी
(मेरी कुमाउनी कविता 'कुन्ब' का भावानुवाद)

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

जीवन और मौत


जिन्दगी और मौत
हैं नदी के दो किनारे
बिना पूरी नदी पार किऐ
या कूद कर नहीं मिल सकते दोनों
एक दूसरे के प्रेमी दिन भर
एक दूसरे को दूर से ही
देख-देख कर
बुझाते है प्यास।

पर रात में जब सब सो जाते हैं
दोनों मिलते हैं
लोग कहते हैं-
हम सो रहे हैं।
वह एक दूसरे को बांहों में भरते हैं
लाड़-प्यार करते हैं
जाने किस-किस लोक में
जहां न अकेले जीवन जा सकता है
और न मौत
वहां घूमते हैं।
लोग कहते हैं-
हम सपने देख रहे हैं।

घूमते-फिरते
कब रात बीत जाती है
पता ही नहीं चलता,
वे एक दूसरे को छोड़ना ही नहीं चाहते
इस समय लोग जगना/उठना ही नहीं चाहते।

फिर जिस दिन सहा नहीं जाता
जिन्दगी मौत के पास पहुंच जाती है
या मौत ही
जिन्दगी को ले जाने आ जाती है।
जन्म-जन्म के
दुनियां के सबसे बड़े प्रेमी
मिल कर एक हो जाते हैं
खुशी इतनी हो जाती है
कि आंखों से आंसू झरने लगते हैं।
लोग भी रोने लगते हैं
फूल चढ़ाते हैं उनके मिलन पर।

युग-युगों तक
फिर रहते हैं वो साथ
पर मिलना-बिछुड़ना दुनिया का नियम
एक दिन मौत नाराज हो
छोड़ देती है जीवन का साथ
रोने लगती है जिन्दगी
रोते-रोते भी
बिछुड़ना पड़ता है उसे मौत से
जाना पड़ता है
नऐ वस्त्र पहन
नई दुनियां में
बन कर नई काया।
वहां मिलती है उसे
मौत की जुड़वा बहन `माया´
उसी की तरह
दिखने वाली,
उसे वही समझ
लग जाता है वह
उसी के पीछे।


कुमाउनी कविता : ज्यूंनि अर मौत

ज्यूनि अर मौत
छन गाड़ाक द्वि किना्र
बिन पुरि गाड़ तरि
फटक मारि नि मिलि सकन द्वियै
ए दुसरा्क पिरेमी दिन भर
ए दुसा्र कैं टाड़ै बै
निमूनीं तीस चै-चै
पर रात में जब सब सिति जा्नीं
द्वियै मिलनीं
मैंस कूनीं-
हम नींन गा्ड़नयां।

उं ए दुसा्र कैं भेटनीं
अंग्वाल खितनीं
लाड़ करनीं-प्यार करनीं
जांणि को-को लोकन में
जां इकलै न ज्यूनि जै सकें
न मौत
वां घुमनीं,
मैंस कूनीं-
हम स्वींण द्यखनयां।

घुमनै-फेरीनै
कब रात ब्यै जैं
पत्तै न चलन
उं ए दुसा्र कैं छोड़नै न चान
मैंस य बखत बिजण न चान।
फिर जदिन अथांणि है जें
ज्यूनि मौता्क तिर पुजि जैं
कि मौतै...
ज्यूंनि कैं ल्हिजांण हुं ऐ जैं।

जनम-जनमा्क
दुणिया्क सबूं है ठुल पिरेमी
मिलि जा्नीं
इकमही जा्नीं
खुसि इतू है जैं
डाड़ ऐ जैं
मैंस लै डाड़ मारंण भैटनीं
फूल चड़ूनीं उना्र मिलंण पा्रि।

जुग-जुगन तलक
रूनीं फिरि उं दगड़ै
पर, मिलंण-बिछुड़ंण
दुणियौ्क नियम...
ए दिन मौत रिसै बेर
छ्वेणि दिं ज्यूनिक दगड़,
डाड़ मारंण फैटि जें ज्यूंनि
डाड़ मारंन-मारनै
बिछुड़ण पड़ूं मौत बै
जांण पड़ूं
नई लुकुण पैरि
नईं दुनीं में,
बंणि बेर नई काया
वां मिलें उकें
मौतैकि जौंया बैंणि माया
वीकि´ई चारि
द्येखींण चांण...

उकें वी समझि
लागि जैं उ
वीकि पिछाड़ि।















...... नवीन जोशी.
(मेरी कुमाउनी कविता 'ज्युनि और मौत ' का भावानुवाद)