दशहरे के दिन,
बना, सजा रखे हैं सभी ने
अपने अपने रावण,
..और अब आग लगा रहे हैं...
किसी का रावण कपड़ों का,
किसी का कागजों का..
किसी में ढांचा लकड़ियों का
और किसी में लोहे का भी
कोई रावण भस्म हो जा रहा पल भर में
कोई कठोर
आँख दिखा रहा
राजी नहीं हो रहा जलने को
कुछ भी हो, वह भी जल्द हो जायेगा राख,
उसके भीतर रखे बम- पटाखे
कुछ देर भड़भड़ाएंगे और फिर चुप हो जायेंगे.
पर होगी इस बीच एक ख़ास चीज
जब जल रहा होगा रावण,
उससे उठने वाली चिंगारियों से
बन जायेंगे रक्तबीज.
भ्रम होगा, जल गया है रावण
पर वो रक्तबीज, बाहर आ
दुनियां में पाले-दुलारे जायेंगे,
फिर अगले साल के दशहरे में
और भी बड़े, ऊँचे
रावण सजेंगे
नहीं मरेगा यों रावण, न कुम्भकरण,
न खर-दूषण
खाली बढेगा प्रदूषण..
जला कर या उससे डर भाग कर ..
उसके सामने होना पड़ेगा खड़ा
करना पड़ेगा मुकाबला
लडनी पड़ेगी लड़ाई
घर से, भीतर से, खुद से भी,
मेरी मानो
न बनाओ, न जलाओ मरे रावण को
जब बड़े-बड़े रावण हैं जिन्दा दुनियां में
कर सको, तो रखो उन्हें चौराहों पर
रोज जूते मारो, काला करो मुंह
और हिम्मत है तो
उन्हें जलाओ.
खाली
भ्रम को जला कर क्या फायदा.....
.....नवीन जोशी
(मेरी कुमाउनी कविता 'भैम' का भावानुवाद)